एक नए वक़्त में चल रहे हैं
सिर्फ़ गली, शहर या राहों के नहीं
घड़ी के काँटों का अलग फ़साना
जो बीत गयीं सदियाँ वो मानो
फिर नया साल है नया ठिकाना
कहीं सर्दी की धूप है सेकी
कहीं गर्मी में खाये आम हैं
जब इन महीने वाले क़स्बों में
वक़्त के किसी शहर ठहर जाना
कान लगा, दास्ताँ सब सुन जाना
गीले पैर ले छप-छप करती आई थी
तुम्हारे हौसले गुड़गुड़ाये थे
यहीं मुझे तुम छोड़ वक़्त के
मगर तुम्हें तो जाना ही था,
जैसे आख़िरी तारीख़ बदल जाना
मुसाफ़िर हो, जाओ बिल्कुल जाओ
पर सुनी दास्तान लम्हों की
तो गए लम्हों की दास्तान सुनना